ayodhya

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Wednesday, November 12, 2008

प्रोफेशनल के मायने

आप किसी भी फील्ड से जूड़े हों। आपको दो शब्दों की एक लाइन अक्सर पेशे से जूड़े हुए अपने साथी और बॉस से सुनने को मिलती होगी, "Be Professional" आखिर प्रोफेशनल होना किस चिडीया का नाम है। हम सब जब तक अपने अपने पेशे से नहीं जूड़े थे तब तक तो यही जानते थे कि प्रोफेशनल होना मतलब अपने काम के प्रति ईमानदार होना. काम के समय सिर्फ काम के बारे में सोचना. एक कहानी भी बचपन में पढ़ी थी. सरदार वल्लभ भाई पटेल एक बार कोर्ट में किसी खास मुक़दमे की बहस में व्यस्त थे. उसी बीच उनके पास एक पत्र आया. उन्होंने पत्र पढ़कर जेब में रख लिया और अपना काम जारी रखा. बहस ख़त्म होने के बाद उन्होंने अपने दोस्तों से बोला कि उन्हें अभी तुंरत वहां से जाना होगा. क्यूँ कि उनकी बीवी का देहांत हो गया था. यह सूचना उन्हें कोर्ट में बहस के दौरान उसी पत्र से मिली थी. फिर भी उन्होंने अपना काम जारी रखा. मैं सोचता था कि प्रोफेशनलिज्म का इससे बेहतरीन उदाहरण हो ही नहीं सकता. पर मैं गलत था, कम से कम उस परिप्रेक्ष्य में जिस में आज प्रोफेशनलिज्म की परिभाषा दी जाती है. पत्रकारिता के पेशे से आप जुड़े हैं तो प्रोफेशनलिज्म का मतलब है कि अगर किसी का बेटा मरा है और मां-बाप के आंसू सूख चुके हैं ऐसे में आपको उन्हें कुरेद कुरेद कर रुलाना है रोते हुए बाईट लाना अच्छे प्रोफेशनालिस्ट की निशानी है. अगर आप किसी थाने में हैं और पति-पत्नी का झगड़ा पुलिस निपटा ले जाती है और पत्नी पति के कुछ एक्शन विजुअल नहीं मिल पाते तो आप कत्तई प्रोफेशनल नहीं हैं. किसी शादी में थोड़े बहुत विवाद की सूचना मिलने पर अगर आप पहुंचे और बारात बिना पिटे वापिस चली गयी तो आप बेकार हैं. क्यूँ कि इन बातों की चिंता प्रोफेशनल लोग नहीं करते कि बेइज्जत हुए लोग खुदखुशी करेंगे या जीवन में उनके लड़के-लड़की की शादी नहीं हो पायेगी. ऐसी तमाम उपलब्धियां आपको बार बार हासिल करनी पड़ेंगी अगर आप प्रोफेशनल कहलाना पसंद करते हैं. फिल्मों में कैसे प्रोफेशनल कहलाते हैं मुझे बहुत सटीक अंदाजा तो नहीं मगर फिल्मों को देखकर ही अंदाजा लगता है कि वहां भी किसी स्ट्रगलर लड़की को सपने दिखाकर उसका शारीरिक शोषण का विरोध करने वाले को कत्तई प्रोफेशनल नहीं कहा जाता. अगर लड़की अपना हक मांगती है तो "be Professional" कहकर शांत कराया जाता है. बात करते हैं मार्केटिंग और फाइनेंस के क्षेत्रों की. अगर आप अपने किसी ब्रोकर को शेयर में इन्वेस्ट करने के लिए पैसे दे रहे हैं तो थोडा सावधान हो जाइये. अगर आपका ब्रोकर या एजेंट प्रोफेशनल हुआ तो आपके पैसे को वो किसी शेयर में न निवेश करके आपका इंश्योरेंस कर देगा. मात्र अपना टारगेट पूरा करने के लिए. और ऐसा करने की सलाह उसका बॉस देता है, Be Professional कहते हुए. इस पंच लाइन का प्रयोग करने वाले ज्यादातर लोग एक और पंच लाइन बार बार प्रयोग में लाते हैं. "ufff your bloddy principles". आप सोच लीजिये अगर आप प्रोफेशनल हैं तो अपने ब्लडी प्रिंसिपल्स को तो भूल ही जाइये.
ऐसे तमाम क्षेत्र हैं जहाँ प्रोफेशनल का वास्तविक अर्थ है झूठ, मक्कारी, वादाखिलाफी जैसे गुणों से लैस होना. मगर चिंता मत कीजिये ये सारे गुण आपको तरक्की दिलाने में आवश्यक हैं. इन गुणों को अब बुरी नजर से नहीं देखा जाता.

Saturday, October 25, 2008

इंसानों की मंडी..

हर शहर हर कस्बे में हर रोज बिकते हैं हजारों लाखों लोग. हम में से हर व्यक्ति ने इन्हें सिर्फ बिकते हुए नहीं देखा बल्कि खुद खरीदा भी है. बकायेदा रोज सुबह हर शहर में लगती है इंसानों की मंडी. जी हाँ आपने सही समझा मैं बात कर रहा हूँ रोज सुबह बिकने वाले दिहाडी मजदूरों की. अब तो दो दिनों बाद दिवाली भी है. इनका दो दिनों तक लगातार बिकना जरूरी भी है. न बिके तो दिवाली कैसे मनेगी. वैसे भी बच्चों को दिवाली के दिन चीनी मिठाई और मिटटी के एक-दो खिलौनों के अलावा कुछ दे भी नहीं पाते ये बिकाऊ लोग. इनकी सब से ज्यादा चिंता नेताओं और सरकार को ही होती है. पांच साल में एक बार इलाके का नेता दर्शन भी दे देता है. पेट के नाम पर वोट भी ले जाता है. मगर औद्योगिक क्रांति है न साहब तो बेचारा नेता भी इनके भूख को भूलकर लखटकिया कार योजना में इन्ही के छाती पर गोली चलवा देता है. ये कहते हैं "माई-बाप बात तो पेट की हुई थी लखटकिया की तरफदारी आप क्यों कर रहे हैं?" सरकार कहती है "चुप मूरख तुझे पता नहीं तरक्की करनी है अपने राज्य की. इसी में तेरा भी भला है." मूरख कहता है"लेकिन साहब जमीन कैसे दे दें इसे तो मेरे पुरखों ने अपने लहू से सींचा है". साहब फिर बिफरता है "जाहिल, औद्योगिक क्रांति वाला क्रन्तिकारी उद्योगपति तुझे काम भी तो देगा" जाहिल गिड़गिडाता है "हुजूर जमीन दे कर तो मैं वैसे भी बेकार हो जाऊंगा फिर काम छीन कर कौन सा काम दे रहे हो आप? नहीं हुजूर मैं अपनी जमीन नहीं दूंगा" हुजूर अपने चेलों को हुक्म देते हैं साम दाम के बाद अब दंड का सहारा लो. चेले अपनी बंदूकों का मुहँ खोल देते हैं. पिछले चुनाव में फूल बरसाने वाले अब गोली बरसाने लगते हैं. जमीन पर औद्योगिक क्रांति वाले क्रन्तिकारी का कब्जा हो जाता है. कभी कभी विपक्ष जिद पर अमादा हो जाता है और नहीं भी हो पाता. मगर इंसानों की मंडी हर सुबह गुलजार हो उठती है. क्यों कि इस बार विपक्ष, पक्ष बन गया है. उसे भी औद्योगिक क्रांति लानी है. फिर अमेरिका वाले पापा को भी तो जवाब देना है कि उसके यहाँ निवेश पूरी तरह सुरक्षित है. सो जमीनें तो हथिया ही ली जाती हैं. मगर इन बिकाऊ लोगों का लोकतंत्र में विश्वास बना रहता है. वोट देने का धर्म ये पूरा करते रहते हैं. कोई औद्योगिक क्रांति वाले साहब से ये नहीं पूछता कि आपने पिछली बार कब वोट दिया था आपको याद भी है? पेट की लड़ाई लखटकिया के सपनों को नहीं हरा पाती. क्यूँकि लखटकिया के पास पुलिस हैं, गुंडे हैं, लेफ्ट है राइट है. इनके पास तो बस वोट है जिसका प्रयोग ये करते ही हैं मगर लखटकिया इन्ही के बनाये हुए नुमाईन्दों को खरीद ही लेती है. यही हस्र होता है जब भूख अपनी औकात भूल कर लखटकिया से टकरा जाती है. कोई ये न पूछे कि हम पत्रकार कभी कुछ क्यों नहीं कर पाते. सब जानते हैं हमारे लाला को भी औद्योगिक क्रांति का प्रचार प्रसार विज्ञापन लेकर करना है आखिर वो भी तो इसी तरह का क्रन्तिकारी है.

Wednesday, May 28, 2008

आधुनिक पत्रकारिता- पीत या छदम पत्रकारिता

आज मैंने हिन्दुस्तान अखबार में रवीश कुमार का ब्लाग से सम्बन्धित लेख पढा। जिसमे उन्होने मनीषा पाण्डेय की बेदखली की डायरी का उल्लेख किया है। मनीषा की डायरी पढ़ने के बाद मुझे लगा कि वाकई में ब्लाग अपनी बातो को कहने का सशक्त माध्यम हो सकता है. वैसे मैं मनीषा जैसी बेहतरीन लेखन शैली और उनके जैसी इमानदारी शायद अपने लेखन में न विकसित कर पाऊं, मगर मैं कोशिश करूँगा कि मैं भी अपनी बातो को ठीक से समझा सकूं. बहरहाल मैं इस शीर्षक पर आता हूँ। मैं जब मॉस काम की पढाई कर रहा था तभी फर्स्ट इयर में ही पत्रकारिता कि दो अजीब विधाओ से दूर रहना सिखाया गया था. जिसे पीत पत्रकारिता और छदम पत्रकारिता कहते है. हमारे गुरुवर राष्ट्रपति पुरुस्कार विजेता श्री यदुनाथ सिंह मुरारी ने हमें इन् विधाओ के बारे में बताते हुए इनसे दूर रहने कि नसीहत दी थी. तब मैंने सोचा भी नहीं था कि मुझे भी जाने अनजाने या फिर नौकरी की मजबूरी के बहाने इसी विधा का उपयोग खूबसूरती से करना होगा. रोजी रोटी पाने और वेरी प्रोफेशनल कहला कर अपनी तारीफ सुनने के लिए मुझे भी लोगो के आंसू का तमाशा बनाना होगा. बात अगर यही तक हो तब तो ठीक थी। मगर हमारे धंधे में एक टी.आर.पी. उसूल है. जिसको ठीक ठीक शब्दों में कहा जाय तो जब तक किसी के टीअर की रेटिंग पॉइंट होती है तब तक हमारा इलेक्ट्रोनिक मीडिया उसके साथ होता है रेटिंग पॉइंट गिरने के साथ हम उसका साथ भी छोड़ दिया करते है. फिर चाहे उसकी बाईट लेने के लिए नेताओ की तरह कितने भी वादे किये गए हों कि आपको इन्साफ मिलेगा. मैं एक वाकया बताता हूँ. फैजाबाद में ही एक औरत ने अपने पति के नाजायज संबंधो से तंग आकर उसकी हत्या कर दी और जब तक वह खुद को भी मौत के घाट उतार देती लोगो ने उससे धर दबोचा. मैं उन् दिनों एक बहुत पुराने विशेषतः अपराध कि खबर दिखाने वाले प्रोग्राम के लिए खबरे बनाता था. मुझ से कहा गया की लो प्रोफाइल खबर है ड्रॉप कर दीजिये. अब सुनिए मेरे एक मित्र को जो जवाब मिला. उत्तर प्रदेश के माने जाने एक रिपोर्टर जो उसके बॉस थे उन्होने उससे पुछा ये बताओ तुम्हे अगर उस औरत से सम्बन्ध बनाना हों तो बनाओगे? उसका जवाब था नहीं. बॉस ने कहा तब ड्रॉप कर दो. यानी वो औरत इतनी सुन्दर नहीं है की उसकी तस्वीर टी.वी. पर चलने से उसके टीअर को कोई रेटिंग पॉइंट हासिल हों सके. जब खली के लिए यज्ञ होता है तो उससे खबरों की हेडलाईन में परोसा जाता है। इससे जानने वाला रिपोर्टर अमूमन खुद ही यज्ञ कराता है. किसी ज्वालंतशील मुद्दे से जुडे लोगो के पुतले भी खुद ही फुकवाने पड़ते है. कभी कभी पुतला जब आम बात हो जाती है तो हरभजन जैसे लोगो को हीरो बनाते हुए सायमंड जैसे खलनायको की तो शमशान यात्रा ही निकलवानी पड़ती है. पति पत्नी का झगडा जिसे कभी कभी पुलिस सुलझाने की कोशिश करती है उसमे एंट्री मारकर किसी तरह पत्नी से पति को थप्पड़ मरवाकर लाइव फुटेज भी चाहिए होती है. ऐश-अभिषेक की शादी में शनि की महादशा का यज्ञ बिग बी चाहे जितना करवा ले बिना रिपोर्टर द्वारा मैनेज यज्ञ के शादी पर तो संकट बरक़रार रहता ही है.
मेरा यकीन मानिये ये तो सिर्फ बानगी भर है. अगर आप में अपनी भावनाओ को मार सकने की ताक़त है पीत पत्रकारिता आप कर सकते है आपमें साधारण घटना को छदम रूप देकर असाधारण घटना बनाने की कला है तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया में आपका स्वागत है. और यदि आप पत्रकारिता को जूनून मानते है समाज के लिए कुछ करना चाहते है पत्रकार बनकर तो माफ़ कीजियेगा "बड़ी कठिन है डगर पनघट की". मैं आगे भी इसके बारे में लिखता रहूँगा. और ये सब लिख पाने के बाद मुझे यकीन है कि मैं आधुनिक पत्रकारिता की इस बेहूदा विधाओ से बाहर आ रहा हू. जल्द ही अपने अंतर्द्वंद से मुक्ति पा सकूँगा.