क्यूँ लड़ता है आदमी,
क्या कभी जीतता है आदमी,
सिर्फ हारता है आदमी,
तो क्यूँ लड़ता है आदमी,
खेल तेरा,
खेल के नियम भी तेरे,
खिलाड़ी भी तू,
फिर क्यूँ मोहरा बनता है आदमी,
तू मदारी तू खिलाड़ी,
सिर्फ तमाशा बनता है आदमी,
पर जब तेरे डोर को,
काटता है आदमी,
तो तुझे भी,
लगाम पहनाता है आदमी,
फिर तू बदल देता है,
खेल के नियम,
क्यूंकि,
खेल तेरा,
खेल के नियम भी तेरे,
खिलाड़ी भी तू,
और,
फिर मोहरा बनता है आदमी.
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